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साम्मुख्य या ''टूर्नामेंट' '
जनवरी, फरवरी, मार्च और अप्रैल हमारे लिये साम्मुख्य के महीने हैं । छोटे और बड़े, सभी एक समान उत्साह के साथ मांग लेते हैं, पर, यह मैं अवश्य कहूंगी कि प्रतियोगिता में भाग लेनेवाले साधारण खिलाड़ियों के मनोभाव के साथ नहीं । क्योंकि हम हमेशा जीतने का नहीं, बल्कि यथाशक्ति अच्छे-से-अच्छे ढंग सें खेलने का और इस तरह एक नवीन प्रगति के लिये मार्ग खोलने का प्रयास करते हैं ।
हमारा लक्ष्य सफलता नहीं है- हमारा लक्ष्य हैं पूर्णता ।
हम नाम या यश प्राप्त करने की चेष्टा नहीं कर रहे, हम चाहते हैं भगवान् की अभिव्यक्ति के लिये अपने-आपको तैयार करना । यहीं कारण है कि हम साहस के साथ कह सकते हैं : प्रतीत होने की अपेक्षा होना कहीं अच्छा हैं । अगर हमारी सच्चाई पूर्ण हों तो हमें अच्छा प्रतीत होने की जरूरत नहीं । और पूर्ण सच्चाई से हमारा अभिप्राय यह हैं कि हमारे सभी विचार, अनुभव, इंद्रिय-बोध और कर्म हमारी सत्ता के केंद्रीय ' सत्य' के सिवा और किसी चीज को अभिव्यक्त न करें ।
('बुलेटिन', अप्रैल १९५०)
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